Sunday, 29 December 2013

कुछ नामुरादों की वजह से उजड़ा है देश हमारा

अक्ल कुंद हुयी दर बंद लगने लगे हैं ,
पता पूछ लिया शब्दों पे ताले लगने लगे 
सुना है बर्फ जम गयी दिलों के भीतर 
इक अलाव जलाया है दीप सा लगने लगा उसका असर 
जिन्दगी बन गयी अब तो एक सफर 
इन्तजार चौखट पर बैठा रहता है
जम गया जर्द होकर ....सूरज कहता है
आग को हवा भी हवा देने लगी है आजकल
पहाड़ी पर देवदार और मैदान में कोहरा जम गया
गवाहों को गवाही के लिए चंदे की दरकार हुयी
बंद कमरों ,ईएसआई गाड़ियों में बैठकर रीबोक के जैकेट वालो
पुराने फटे से कम्बल को कभी दोहरा करके लपेटकर निकलो
हकीकत का सामना करने नंगे पांव सडक पर निकलो
हाथ में दराती लेकर कभी घास को निकलो
खेत में बोने को धान ...एक फुट पानी में उतरो
फसल ईख को काटने ...कभी छोल को निकलो
गेहूं की बालियों को बीनने नंगे पैर कभी खेत से गुजरो
सर्दी गर्मी की तपिश कर देती है ताम्बई सा बदन
बंद कमरों के कमनीय बिकते हुए ,चंद सिक्को पर थिरकती तितलिया
इमान कैसा हैं बखान करती है सारा ..
कुछ नामुरादों की वजह से उजड़ा है देश हमारा .-- विजयलक्ष्मी

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