Tuesday, 17 January 2017

" मैं स्त्री ,, मेरा वजूद प्रश्न चिह्न है "

मैं स्त्री ,,
मेरा वजूद प्रश्न चिह्न है
कहोगे अच्छी खासी तो है ,,,
क्या कमी है ,,
सबकुछ तो है भगवान का दिया ,,
बड़ा सा घर ,,एश औ आराम का सामान ,,
गाड़ी ,,धन-दौलत ,,
बच्चे परिवार ,,,
फिर वजूद कैसा
पगला गयी है .....
हाँ ,,शायद ..यही सच है
पगलाना ,,
सटीक बैठता है..
स्त्री और वजूद ...हंसी आती है न ...........||
नदी समन्दर में खुद को कब ढूंढ सकी है भला ...
तो क्या समन्दर से मिलन अर्थात
अस्तित्वहीनता सीधा सा मृत्यु !
अरे ..रे ,, क्या कहा ...इसमें मृत्यु की बात कहाँ ?
तुम हो तो जीती-जागती,, जिन्दा
मतलब देह का होना जिन्दा होने का सबूत है ,,
और अस्तित्व कर्तव्य के तले दबकर मर गया
लोथड़ा ,,बंदिश भावो का अहसासों का ,,
पिंजरे की मैना सी ,,
बस देखो मचान को ...
शिला हुई अहिल्या को तारने को राम आये थे
तभी तो ..अग्निपरीक्षा सीता की ,,राम ही पाए थे
पांडवों ने द्रोपदी को जुए में हारा था ,,
मांडवी ,उर्मिला के वजूद को भरत औ लक्ष्मण ने नकारा था
कभी मोनालिसा बना तस्वीर में टांक दिया ,,
हकीकत दिखाई मुस्कान पर आंसू का पहरा बिठा दिया
" मेरी" मिले वर्जिन ये तमगा लगा दिया
कोई बुद्ध आकर यशोधरा को तज गया
कंस के आदेश ने पूतना को राक्षसी बना दिया
होलिका को जलना पड़ा हिरण्याक्ष के प्रकोप में
त्याग की मूर्ती बने वो है औरत ,,
वजूद खोकर खो जाये वो है औरत
अस्तित्व को नकार दे वो है औरत ,,
अपने सपनों को सबपर वार दे वो है औरत ,,
न स्वप्न न ख्वाहिश ,,
न अहसास भाव का ,,
झेलती रहे दंश सदा ही दुराव का
क्यूँ नहीं मान उसका समाज में
कहाँ है नारी स्थान कहो आज में
क्यूँ मान की अधिकारिणी नहीं है औरत ,,
क्यूँ अपने नाम की अधिकारिणी नहीं है औरत
मिटा दिया अस्तित्व तुमने नाम देकर अपना
प्रश्न पूछूं किससे कहाँ समाज है यहाँ
कोई तो बताये नारी का आज है कहाँ ,,
झुकते झुकते औरत धरती में समा गयी
कोई गर उठी तो पतिता सुना गयी ,,
क्या कभी जिन्दगी जिन्दा सी मिलेगी ..
औरत को आजादी परिंदा सी मिलेगी ..
क्या कभी फूलो सी मुस्कान पाएगी ,,
सच बताना ,,जिन्दगी कभी अपने कदमों से माप पायेगी
क्या कभी इमानदारी से औरत अपना वजूद पाएगी || -------- विजयलक्ष्मी

1 comment:

  1. वक्त के साथ सबकुछ बदल रहा हैं
    अच्छी रचना
    http://savanxxx.blogspot.in

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