Saturday, 7 December 2013

काश ! खुद को मिटाकर भी मैं तुमको भूल पाता

कभी समझ सको गर मुझे "तुम "
नाराजगी तुमसे नहीं खुद से पाता हूँ 
तुम धडकती हो धडकन बनकर 
हर सांस में सिर्फ तुम्हे ही पाता हूँ 
तुम बिन जिन्दा नहीं मैं ,सच है 
हर इक लम्हा मरकर बिताता हूँ 
मेरा वजूद तुमसे है तुम्हे भरोसा नहीं शायद 
कभी रूह में अपनी टटोलो मुझको 
मैं तो हर तरफ सिर्फ तुम्हे पाता हूँ 
खुशबू कहूं तुम्हे या चांदनी अपनी 
रोशन सी किरण हो ...या जिन्दगी अपनी ..
महकती हो तुम्ही संग हवाओ के
दिखती हो हर कली में चटकती हुयी भी
मुस्कुराती हो गुल बिखरता है हर तरफ
तुम बिन मैं सहरा ,बिन पानी आवारा सा बादल
फिरता है मारा मारा जैसे कोई पागल
नदिया सी बहकर मिलगई हो जब से मुझमे
लगता है जिन्दगी मुस्कुरा उठी है
अब तुम ही खुदा हो मेरे मेरी कायनात तुम हो
काश ! खुद को मिटाकर भी मैं तुमको भूल पाता.- विजयलक्ष्मी 

No comments:

Post a Comment