Sunday, 1 December 2013

कुछ आड़ी टेढ़ी सी लकीरे हैं ,

हथेली पर हमारी कुछ आड़ी टेढ़ी सी लकीरे हैं ,

पढने की चाहत बहुत रही जाने किसने उकेरी हैं.



उकेर कर मिला नहीं ,किसी के पास पता नहीं ,


अब हमारे नयन में तस्वीर और हिस्से फकीरी है.



कहीं किस्सा ए महफ़िल शोहरत न मिल जाये 


पढ़ लिया गर किसी ने भी ये दुनिया बेनजीरी है 



आँख का आंसू सुखाया हवा के मुहाने बैठकर 


आग लेकिन बुझ सकी न धुएं ने दुनिया बिखेरी है



रास्ता कोई सीधा पहुँचा कब जानिब ए मंजिल


वाबस्ता हर कदम मिलेगा हर राह भीड़ घनेरी है 



जिधर देखिये, भूख रोती है देह की आग झुलसाती 


मतलबी आपाधापी में इन्साँ ने दुनिया ही बिखेरी है .- विजयलक्ष्मी

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