आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है
मानव की परवशता कविता बन गयी है ||
मानव की परवशता कविता बन गयी है ||
दुःख भरे विष प्याले पी मधु का स्वाद चखा
जग के अंतर की पीड़ा से मन में राग जगा
दर्द की लहरों के निरंतर प्रवाह से कविता जग गयी
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है ||
जग के अंतर की पीड़ा से मन में राग जगा
दर्द की लहरों के निरंतर प्रवाह से कविता जग गयी
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है ||
समय के पत्थर के प्रहार प्रतिपल सहे हैं
बहते झरने दुःख के कब मुख से कहे हैं
है रीत प्रीत की पावन वही सविता लग रही है
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है ||
बहते झरने दुःख के कब मुख से कहे हैं
है रीत प्रीत की पावन वही सविता लग रही है
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है ||
विराना सुना था उडती आंधियों का बसर है
जिन्दगी भी सुख दुःख की लहरों का सफर
मधुरिम प्रीत की रीत कैसे मन में चुभ गयी है
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है ||
जिन्दगी भी सुख दुःख की लहरों का सफर
मधुरिम प्रीत की रीत कैसे मन में चुभ गयी है
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है ||
प्रतिपल जग ने मेरी निश्छलता को आंका
दर्द के दरिया में तन्हा तिरा न कोई झाँका
क्रांति की इक चिंगारी मन के भीतर लग गयी है
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है ||
दर्द के दरिया में तन्हा तिरा न कोई झाँका
क्रांति की इक चिंगारी मन के भीतर लग गयी है
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है ||
बदल गया है रूप रंग देश पाश्चात्य लगने लगा
लगता है जीवन सोया व्यक्ति व्यक्ति से डरने लगा
भरमवश कहूं या भरम में कह दूं भारत डोर उलझ गयी है
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है ||
न रंग पुरातन न ढंग पुरातन हुए लाचार आचरण
जननी को जीवन की बाधा भोला बिसरा सब व्याकरण
ये कैसी लाचारी पनपी भारत संस्कृति धूमिल हुई है
आहत उर की अंतर-पीड़ा कविता बन गयी है ||
--- विजयलक्ष्मी
सुन्दर
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ReplyDeleteअक्षय गौरव त्रैमासिक ई-पत्रिका के प्रथम आगामी अंक ( जनवरी-मार्च 2019 ) हेतु हम सभी रचनाकारों से हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित करते हैं। 15 फरवरी 2019 तक रचनाएँ हमें प्रेषित की जा सकती हैं। रचनाएँ नीचे दिए गये ई-मेल पर प्रेषित करें- editor.akshayagaurav@gmail.com
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