Tuesday, 11 September 2012

छाँव वो तुम्हारी है ...

बदरा से है आज मौसम में ..
न चमकती धूप चकमक सी, न बारिश है मेरे अंगना ,
लगी बंद दरवाजों पे सांकल संस्कारों की है ...
यूँ आजाद सा पंच्छी मगर उड़ता दायरो में है ,
हाँ ,बंद दरवाजे मेरे यहाँ साहित्य का विराना सा ...
है बंधन बड़ा प्यारा ....नहीं कोई और सन्नाटा ..
उडती जो पतंग बन के मगर है डोर हाथो में .. 
छू गए जो तीर दिल से उन्हें कैसे बताऊँ मैं ,
हाँ लगे अच्छे ये भी सच है ,...मगर सहमा सा आस का कोना ,

ये चिड़िया उड़ नहीं सकती ...पंख सैयाद पे ठहरे ..
नहीं पिंजरे पे कोई ताला ....मगर दर यूँ ही ढूकाए हैं ...
दिखता है वो पौधा जो खेलता है छाँव में ,
क्यूँ दर्द ठहरा है कह दो ...क्यूँ सन्नाटा तारी है ,
हर आंगन खिलता रहे ...ये तमन्ना भी हमारी है ,
गमले का पौधा खिल रहा जिस छाँव में ...वो छाँव ..छाँव वो तुम्हारी है ,..
बदल बैठे थे खेतों को ...कलम का रंग है वो भी
हर मौसम उतरता है ...उदासी लगती प्यारी है ...
पाना है मुझे जिसको ..वो सबसे बड़ा खिलाडी है .
नियंता धरती का ही नहीं उसका तो पूरा जग ही पुजारी है ..
शुद्ध मन यहाँ रोका भला किसने बता ..
तुलसी का पौधा रोपा गर ....दीपक तो जलेगा ही.
दर है भवानी का ...यहाँ ताले नहीं लगते...
हाँ ..मगर काला रंग रखकर जीव यहाँ नहीं फटकते ..
न रुकते न ठहरते हैं ....मगर फिर भी एतिहात जरूरी है ...
ये दुनिया वाले ...श्वेत रंग का मतलब बस एक ही रहे समझते ..
इस आंगन के रिश्ते तो बस ईमान में ही हैं बसते .-- विजयलक्ष्मी

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