इस नशेमन में कोई ठहरे कैसे ,
काँटों सा ख्याल ,लहू में रंगा सा रुमाल ,
मैं और तन्हा सी तन्हाई साथ साथ चलते हैं .
बेवड़ा सी जिंदगी अपनी ,
बेढंग र्वातों के उस छोर चली आई ,
कभी ख्वाब कभी ख्याल साथ चलते हैं .
मैं कहाँ हूँ खो दिया खुद को ,
कड़वाहटों की संकरी गली में भी देखो ,
लेके अनोखा सा रंग वो मेरे साथ चलते हैं .
बहुत नागवार सी बातें अपनी ,
सहरा में नखलिस्तानों सा शहर भी है ,
हर सहर दीप भी मगर आग के साथ जलते हैं .
-- विजयलक्ष्मी
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