Tuesday, 4 March 2014

" हे सीता के राम ..नतमस्तक हूँ मैं "

शर्त ...अब कौन सी बकाया शर्त है ,
कह डालो ..उसे भी ..
सुनना चाहते है ..
हाँ ...बोलना नहीं,सुनना है 
नहीं..नहीं हमारी कोई शर्त नहीं 
तुम्हारे अहसास शर्तों के साथ पनपते होंगे 
शर्तों पर जीते होंगे ..हमारे नहीं ,
किसी भी शर्त का रंज अब नहीं है
झुकने से छोटे नहीं होते .
तुम खड़े रहो तनकर ..
एक रेखा लांघने का दोष... वनवास जीवनभर
एक ही शर्त ...रेखा के भीतर ,हाँ ..उसी परिधि के भीतर
एक सच कहती हूँ ..गौर करना ..
रावण आया रेखा खिंच दी ,
मुगल आये ..पर्दा बढ़ा दिया ,
अंग्रेज आये ..गुलामी सिखा गये
क्या अब कोई गार्गी या गायत्री नही होगी
नहीं होगी अपाला सी तपस्वनी ,
बस अहिल्या ही होंगी ...जिन्हें शिला बनके करना है इन्तजार " राम का "
वाह रे राम ...तुम भी अजब हो ..
दूसरे की पत्नी को तारा ...और अपनी सीता को त्यागा ,
अद्भुत न्याय है तुम्हारा ,,तुम्हे प्रणाम ,
हे मर्यादा धारी ..नतमस्तक हूँ मैं ,
हे पुरुषो में उत्तम बलशाली ...नतमस्तक हूँ मैं
हे सत्यपथी श्री राम तुम्हे पूजती बना भगवान ..नतमस्तक हूँ मैं
हे श्यामलगात मनोहारी ..नतमस्तक हूँ मैं
हे अद्भुत सत्ता धारी ..नतमस्तक हूँ मैं
हे प्रणधारी भगवान ..नतमस्तक हूँ मैं
हे सीता के राम ..नतमस्तक हूँ मैं
तुम्हे कोटिश: प्रणाम ..नतमस्तक हूँ मैं .-- विजयलक्ष्मी




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