Monday, 17 September 2012

लाशों को कफन भी न मिला ..

अब कहाँ खिलते चमन ,जलते हुए है आसमां 
मुफलिसी की ओढ़ चादर, तकते हुए हैं हर निगाह| 
नग्न तन बंजर हुए मन ,है आसमां भी लापता 
बादलों को साथ ले कर ,वक्त भी चलता बना |
उम्र बचपन की खो गयी ,मुफलिसी की भीड़ में 
आसमां अपना नहीं था ढूँढें मिला न कोई निशां |
वक्त का ये था तकाजा ,या नाजुक की भूख का असर
दो बून्द न टपका नैनों से ,लाशों को कफन भी न मिला |

थे खिलाते हाथ जिनको, आज भूखे ही सो रहे क्यूँ ?
जो आशियाने बना कर चले ,उन्हीं को मिला न आसमां |
ठिठुरती सी ठंड अकड़ते बदन ,छाती सर चिपकी सिसकियाँ
वक्त से मिले छालों का मरहम ?सुनी मौत की शहनाइयां |
क्या मनुज है ?तनुज न अपने तकाजा है रेशम जड़ा ,
भीतर से खोखर हुए दिल ,कोई चेहरा इंसानी रहा कहाँ ..-- विजयलक्ष्मी 

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