हद से बाहर हम न जा सके , हद में वो न आये ,
इसी तकल्लुफ में हम भी वो भी ,अदावत क्यूँ लिखने की .
तूफ़ान ए समन्दर चाहे सुनामी का आलम हुआ करे,
इजाजत गर नहीं लब सी लेंगे गुस्ताखी कैसे हों लिखने की .
शब्दों को मार डाला है हमने उनकी खातिर खुद में
भला नाम नहीं लबों पर क्यूँ कर हों इजाजत लिखने की .
काश मौसम ही बन गए होते तो बदल तो सकते थे ,
ईमान ही कुछ ऐसा है शऊर न हुआ ,न इबादत लिखने की .-- विजयलक्ष्मी
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