दीपदान करके ही सजाया है धरा को हमने ,
कलम से निकलते है कांटे भी लहू लेकर अपना .
भरोसे पे भरोसा खुदाई से खुदाई औ जुनूं है ,
याद नहीं...जिंदगी हकीकत है या ख्वाब अपना .
मसरूफियत दर्द ए पयाम खुशी दे बैठे हैं ,
क्यूँ वक्त बदलता चला है रंग और सवाल अपना .
डूबता है किनारों के साथ ही रेत दरिया का,
वक्त की ठोकरों से रुका ही कब सफर अपना .
ए जिंदगी सुन ,मालूम है सफर तन्हा नहीं है ,
यादों में ,अहसासों में, बातों में ,हमसफर है अपना.
..... विजयलक्ष्मी
ए जिंदगी सुन ,मालूम है सफर तन्हा नहीं है ,
ReplyDeleteबहुत अच्छी पक्ति है .........