बताया था पत्थर हूँ निरा
अहसास भी पत्थर से ही है
दर्दीले से ..कुछ गर्वीले से
किसी ने तराशा ही नहीं था
नुकीले से आड़े टेढ़े से ,
हुनर एक ही .. जो छप जाये
पत्थर की लकीर सा ..
जो छाप दे वो ..
मिटना मुश्किल ,
विश्वास में जीता हूँ ...
हाँ मरना तो है एकदिन ,
सोचा था जिंदगी दे दूं
पर कैसे भला ...
शजर होता तराशता कोई
बनती मूर्ति कोई मुकम्मल
और शायद ...
गुमाँ होता खुद पर ,
उस पल मुझको भी ..
अपने शिल्पी पर ...
और शायद मैं..
हाँ मैं ही बस ....अब निरा पत्थर
पड़ा हूँ इक ठौर ..
.गुजर जाऊँगा
किसी दिन
दुनिया से यूँ ही ...
चुपचा褪 তന्हा सा l
तराशे जाने के ..
अनहद से अनंत इन्तजार मैं ..--विजयलक्ष्मी
No comments:
Post a Comment