Thursday, 5 July 2012

निश्छल मन सहमा सा कोरा पड़ा है ....

शब्द ठंडे थे कभी ...श्रंगार बरस कर सहमा था ..
आह उठी अब, क्यूँ सहरा की तपिश भी लीलती है.
अब श्रंगार ने अंगार का बाना पहन लिया है ..
अब पूछ खुद से रक्षा को रखी कटारें वार क्यूँ करने लगी ,
सोच ,रिसता दर्द था जहाँ परिवार का ,लहू क्यूँ बहने लगा है ,
क्या हुआ ऐसा मलय, क्यूँ आँधियों सा कहर ढाने लगा ,
जो रास्ता उसका न था क्यूँ आकर के टकराने लगा
सोच फिर भी शांत था .. क्यूँ अब तलक ,...
फट पड़ा क्यूँ ...जहर भरा क्यूँकर सोच कैसे भला ....
क्या हुआ ..गुल के शहर में कांटों का असर दिखने लगा...
अभिव्यक्ति की शिष्टता नहीं बदली थी मगर ..
दर्द कैसे सहते सहते दर्द का ज्वालामुखी बन दफन था क्यूँकर हुआ ...
अब तपस्या दिखने लगी ...उजड़ने का डर किसको नहीं था ...
चलती है हर बात नेपथ्य में बीते हुए चलचित्र सी ..
रुंड मुंड माला बना हार क्यूँ गले में आ गया ..
शांत कहकर छलता है .... क्यूँ खुद को भले मानुष ,
आंसूओं को अपने अब सुखाकर ....बंजर जमीं कर डाली है ..
लील गया वक्त सब बाकी बची कहाँ हरियाली है ..
फलक के पार ..महाप्रयाण की शेष बाकी बात है ..
निश्छल मन सहमा सा कोरा पड़ा है ....शेष कुछ अब भी है बचा ?-विजयलक्ष्मी

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