Tuesday, 31 July 2012

कैक्टस पर गुल मुश्किल से खिलते है ..


इन्तजार से हर परेशान हाल तक ,

उसूलों की लड़ाई तो लडनी ही है .
मौत के इंतजार से और सहर के उजाले तक ,
जिंदगी कैसे गुजरती है ..मालूम है फिर भी ...
गमले खामोश से हुए है ..
मंजर खो से गए ..
चले आये फिर आंसूं के बादल लेकर मनाने ..
खो जायेंगे किसी जमाने में ..
तरह तो ..
जंगली पौध हौसले से चलती रहती ..
तूफ़ान के सामने से गुजर जाती है और फिर भी इन्तजार ..
गुम होना इस तरह ....समझ लो ??
रुसवाई भी चली आएगी इस तरह तो ..
दामन में ..
भीगते है पूरी रात कायनात खुश्क है मगर ..
सहर के सूरज के बिना ..सहर कहा है सोच कर बताना ..
सहरा में जल कौन देता है असर भी नहीं होता ..
माँ के परसे बिना असमान के बरसे बिना ..
धरा पे रंगत नहीं आती ..मालूम है न ..
सूखा तो कांटे ही देगा ..
गुल सूख जायेंगे ..
कैक्टस पे बहुत मुश्किल से गुल खिलते है ..--विजयलक्ष्मी

2 comments:

  1. भीगते है पूरी रात कायनात खुश्क है मगर ..
    सहर के सूरज के बिना ..सहर कहा है सोच कर बताना ..
    सहरा में जल कौन देता है असर भी नहीं होता ..
    माँ के परसे बिना असमान के बरसे बिना ..
    धरा पे रंगत नहीं आती ..मालूम है न ..
    सूखा तो कांटे ही देगा ..
    गुल सूख जायेंगे ..
    कैक्टस पे बहुत मुश्किल से गुल खिलते है . ==== बहुत सुन्दर

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  2. कभी समय मिले तो मेरा ब्लॉग भी ज्वाइन कर ले . अच्छा आदान प्रदान रहेगा रचनाओ का

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