लगने लगे हैं खुद को ही नए से जैसे बदल रहे हैं हम
हों रहा है बारिश का असर अब जान बचती सी नजर आने लगी है
हों रहा है बारिश का असर अब जान बचती सी नजर आने लगी है
एक मुस्कुराहट झांकती है बादलों की ओट से ,
और धरा भी सहम कर लजा गयी अपने आप से
आसमां ने हर तपिश समेट ली आगोश में ...
खो रहे है क्यूँ नयन प्रकृति के उल्लास में ,
छू रही है मलय मन ,आत्मा थिरक उठी नए से अंदाज में ..
अब फसल लहलहाने सी लगी है खेत में ...
बंजर जमीं को साँस जैसे मिल गयी हों..
आईने का सच कहूँ कैसे भला ?हम खुद को उसमे न पा सके ,
रुक जरा सम्भल तो लूं बिखरने लगा है क्यूँ मेरा वजूद ही ,
रंग बिरंगी सी हर डगर लगने लगी ,
महकने लगी है बेला क्यूँ इक ख्वाब सी ...
आदत नहीं है आँख को किसी ख्वाब की, डरते है टूट जाये न .
विजयलक्ष्मी .
No comments:
Post a Comment