काश !टूटते मिथ सभी ...
बनती नई परिभाषाएं ...
कुछ लकीरें हमने बांची ...
आहत होती आहटों से...
कुछ कटारें घोपीं किसी और ने
अब चरम होगा तो बवंडर तो उठने ही हैं ,
क्या परीक्षा का दौर...
कभी खत्म हुआ है आज तक ...
अनजान राहों पे है खडें ...
देखते से चल रहे है कुछ लकीरें है खींची
राह है जो रोकती दर कदम अब टोकती ..
किन्तु हर परीक्षा सिर्फ मेरी ...?-विजयलक्ष्मी
बनती नई परिभाषाएं ...
कुछ लकीरें हमने बांची ...
आहत होती आहटों से...
कुछ कटारें घोपीं किसी और ने
अब चरम होगा तो बवंडर तो उठने ही हैं ,
क्या परीक्षा का दौर...
कभी खत्म हुआ है आज तक ...
अनजान राहों पे है खडें ...
देखते से चल रहे है कुछ लकीरें है खींची
राह है जो रोकती दर कदम अब टोकती ..
किन्तु हर परीक्षा सिर्फ मेरी ...?-विजयलक्ष्मी
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