बस गाँधी जी के तीन बंदर ..
न देखो, सुनकर फिर बोलना क्यूँ ,
गुण चाहिए सब बस एक के अंदर ,
ओह ..राज शब्द कुछ अजब सा हुआ था
पिता की नजर ...क्यूँ घबरा गयी बेटी ..
भाई के हाथ वो दुपट्टा था किसका ..
माँ ने भी रोटी उसी की खतिर धरी थी ,
शंशय की दुनिया बहुत ही अजब है..
चुभती सी नजरें नोंचती सी शरीर ,
पड़ने लगी पत्थर पे लकीरें ...
शक की बेल ..रूकती नहीं है कभी भी ..
ज्वालामुखी की दरारें न भरती ..
अंगूर बोने से खेती लाजवाब होती ..
जिंदगी का देखना पक्का हिसाब है..
खौफ क्यूँ ,अविश्वास की कच्ची होती ताब है ,
सहमे से चेहरे सबके ही भीतर समाये ..
डस न सके कोई ,....थे खंजर उठाये ,
झाँसी की लक्ष्मी बाई ..देखना मेरी ही बेटी न बन जाये ,
जरूरी है मगर जमीं पे वो आये ..
स्वार्थ की जमीं को खादपानी क्यूँ सुहाए ...
भाई के खून से रंगे है हाथ ,चलता देता कंधा साथ ,
हर कोई घात बैठा है घात लगाये ...चलें बहुत बात हों गयी ...
किस्सा नहीं है आज की ये सत्यकथाएं .--विजयलक्ष्मी .
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