Tuesday, 17 July 2012

भूखी सी भूख भी रहती थी उस घर में ...


भूखी सी भूख भी रहती थी उसी घर में ..रोती थी वो दिन रैन .
छः बच्चों के संग रोगी सी काया रिक्शा का चलता पहिया ..
परवरिश के नाम पर ....सूखी सी रोटी ..
सब्जी पानी का झोल नाम को सब्जी का मोल..
रिक्शा चलकर आया था ..आज शहर में मेला था ..
सोचा था कमाई ज्यादा होगी ...फिर अच्छी वाली रोटी खाने को नसीब होगी ..
पाँच रूपये की सवारी आज सात रुपुए में छोड़ी थी ..
रोज की की कमाई में पचास और जोड़ी थी ...
लखिया ,जो बस नाम की थी ..हाँ शक्लो सूरत से खूबसूरत तो थी
गंदली सी मंगी हुई सलवार कुर्ती में भी जब मुस्काकर लजाती तो चाँद जैसे जमीं पर आ गया
लज्जो को आज कोपी पेन्सिल ,ललिता को चप्पल ..राजू की किताब ...
छत की टीन ....रानी की फीस ..सबका हिसाब लगाया था आज मेला जो था ..
सूरज ढलान पर था ..रमिया थोडा सा खुश भी था ..
आज तो रोज से ज्यादा कमाई हुई ..
दो तीन चक्कर और लगा लूं जल्दी से थोड़ी सी और कमाई ..
अभी तो साथ भी न बजे थे ....रोज का देखा भाला रास्ता था ...
डरने की कोई बात न थी ...फिर चलूँगा घर ...इंतजार मैं होगी लखिया भी ..
सोचता जाता था ..और मुस्कुराता था ...बस दो चक्कर और ..
फिर एक बचा है अब तो दिवाली हों जायेगी ...रुपयों को देख कर मन ही मन खुश था ..
मुस्कुराहट देखते बनती थी रमिया की ...चाचा इस चक्कर के बाद चलता हूँ घर बस ..
कहता हुआ आगे बढ़ गया ..अगले गोल चक्कर से तेजी से चीखने की आवाज आई ..
गाड़ी ने ब्रेक मारा घसीटती चली गयी और ....र..मि...या ..को ...
ल..खी....या.....एक आवाज और सब शांत ....सन्नाटा पसर गया ..सड़क पर
आखिरी चक्कर ,,बन गया आखिरी ही चक्कर ..चाचा की स्न्नातेमे आवाज आई ..
मुस्काती लखिया की तस्वीर धुंधला गयी गयी .... आखिरी सिसकी ...
और छोड़ गयी कई सिसकियां अपने पीछे....
लज्जो की कोपी पेन्सिल ...,ललिता ..की ..चप्पल ...राजू ..की ..किताब ...
खो गयी सब की जिंदगी उस एक मोड पर अन्धेरें में ...
और भूख भूखी सी आज भी उसके बाद भी वही रहती है ..
उस भूख की भूख न मिटी अभी भी ...अब किसका नम्बर ..किसको खायेगी ..
सरकार को क्यूँ नहीं खाती ...नेता के घर भी नहीं जाती ..
गुंडों के घर तो उसका दम घुटता है ...ये भी गरीब के घर में ही पलती है .
इस नासपीटी भूख को भी उसी झोपडी मैं सब कुछ मिलता है ....
दर्द भी और भूख भी, चीखें और मजबूरी भी ..सब कुछ .--विजयलक्ष्मी

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