Tuesday, 24 July 2012

मानव बनने की फुर्सत किसे है ..

सहर का सूरज बादलों से तो निकल चुका ..
चमक कर आसमां पर खिला तो है ..
बैचैनी का सबब क्या है उसकी ..
धरा का अँधेरा भी मिटने लगा है ..किन्तु सरकारी नीतियां कुछ ऐसी ही है ..
धर्म अंधा होकर बीच में खड़ा रहता है..
सबका धर्म कतई अपना अपना अलग अलग है ..
कुछ का नौकरी कुछ का छोकरी ..
मुहब्बत कुछ का धर्म, झूठ बोलना किसी का ..
किसी नहीं फुर्सत नेता गिरी से ..
कुछ आधे ज्यादा चापलूसों की गिनती..
उनका मानना है नौ काम नौकरी के दसवां "जी हजूरी " ..
न मालूम दुनिया पहुंचनी कहाँ है ...
हर एक घर पे अलग झंडा लगा है ..
जितने मुँह धर्म मुँह बाये खड़े देखतें है ..
इनमे सबके बीच इंसानियत कहीं खो गयी है ..
मानव ,महामानव बनना चाहता है ..
मानव बनने की फुर्सत किसे है ?
सम्वेदनाएँ उसकी कहीं राह मैं गिर गयी है ..
चला जा रहा है अनजान सी डगर पे ..
मंजिल नदारत बस सफर ही सफर है ..
बस सफर ही सफर है ..
जाना कहाँ अब किसे ये खबर है
सहर का सूरज बादलों से निकल तो चुका ..
चमक कर आसमां पर खिला तो है ..
कितने मोड है राह ए सफर में,
न जाने कौन कब किस मोड मुड जाये.
निश्चित कुछ भी नहीं लगता . --विजयलक्ष्मी

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