नारी क्यूँ बदहाल है यूँ ..
क्या सूर्य निकलना नहीं चाहता तेरी जिंदगी का ..
कही पर अँधेरा गहन, कहीं जल रही है ताप से ,
कहीं पर .... हाथ ताप रही है आग से...
उठाती है नाजायज लाभ कहीं पर ..
सच है कहीं पिस रही है युगों से...
दुश्मन कहीं पर जला खाक कर ने पे अमादा तुझको ..
लहु सी बहती कहीं बर्बरता का बनके ..
कहीं महक पुष्पों की बिखरा रही है...
कहीं समाधि जैसे हों शिव की ..
जैसे गंगा चले , ऐसी बहती सी दिखती ..
है कितने रूप कभी सहरा सी ..
कभी समन्दर सी लगती ...
कभी दर्द पर्वत से सहती चले तू ..
कभी बरसती है बरसात जैसे बहा के चलेगी ..
लगती कभी जैसे सृजक तू है धरा की ..
निर्मात्री सी चलती धरा के हर छोर पर ...
विस्तृत गगन के आगोश मैं जैसे छिप कर ..
खिलती चलें कोई अभिव्यंजना सी ..
अजब सी कृति तुम उस अनन्ता की ,
नाज करूं या करूं शक ओ शुबा समझ से परे तू ...
समझ से परे है ...--विजयलक्ष्मी .
क्या सूर्य निकलना नहीं चाहता तेरी जिंदगी का ..
कही पर अँधेरा गहन, कहीं जल रही है ताप से ,
कहीं पर .... हाथ ताप रही है आग से...
उठाती है नाजायज लाभ कहीं पर ..
सच है कहीं पिस रही है युगों से...
दुश्मन कहीं पर जला खाक कर ने पे अमादा तुझको ..
लहु सी बहती कहीं बर्बरता का बनके ..
कहीं महक पुष्पों की बिखरा रही है...
कहीं समाधि जैसे हों शिव की ..
जैसे गंगा चले , ऐसी बहती सी दिखती ..
है कितने रूप कभी सहरा सी ..
कभी समन्दर सी लगती ...
कभी दर्द पर्वत से सहती चले तू ..
कभी बरसती है बरसात जैसे बहा के चलेगी ..
लगती कभी जैसे सृजक तू है धरा की ..
निर्मात्री सी चलती धरा के हर छोर पर ...
विस्तृत गगन के आगोश मैं जैसे छिप कर ..
खिलती चलें कोई अभिव्यंजना सी ..
अजब सी कृति तुम उस अनन्ता की ,
नाज करूं या करूं शक ओ शुबा समझ से परे तू ...
समझ से परे है ...--विजयलक्ष्मी .
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