Wednesday 11 July 2012

जिंदगी मुलिसी मैं चल रही है ...

जिंदगी मुफलिसी में चल रही है 
छप्पर मेरे घर का आधा उजड़ा सा है 
आधे से ज्यादा तो ब्याज मैं चुकता होती है ध्याडी दिनभर की 
अमावस की रात सा उजाला तो बदली मैं छिप गया.....
देखता है बारिश का रुख आज भी ,
भरोसा हों भी क्यूँकर ...सरकारी मुलाजिम जो ठहरे ,
वक्त की पाबंदियां है यहाँ और स्वरोजगारी इच्छाधारी है ...
वेदना ,सोच रहे है अंतर्मन के अंधकूप मैं डाल दूँ तुम्हे ...
फिर कोई न बांच सकेगा ...नयन तुम बरसते क्यूँ हों ..
अभी बादल हैं अम्बर पर ...शांत तो नहीं लगते,
बिजली कडकती है रुक रुक कर ..सहर तक जिन्दा रहे तो ....
आफ़ताब से रूबरू होंगे, रूह के शहर सन्नाटा क्यूँ है पसरा .-- विजयलक्ष्मी

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