Wednesday, 4 July 2012

पागलपन का ईलाज चल रहा है ...

समर में रेतती है सर जिसका कलम, तलवार बन तुम्हारी ..
चलते है बाण उगलते आग जिस मंजिल ए जानिब ..
देशद्रोही का तमगा जिसे हासिल हों चुका है ..
सूखती धरा का आंचल जहाँ चिथड़े हों चुका है ..
बचा है एक अवशेष ही अब उस जगह ..
चिह्न मात्र है अगर पहचान कर सके ..
मृत्यु के वरण पर कांपती क्यूँ जिंदगी ..
दूर जाती हर डगर की बन्दगी ..
आरती का दिया .... बुझ चुका कभी का ..
मांग का सिदूर जिनका पुछ चुका है ..
पूछता है कौन समर के बीच में ...रिश्ते सभी से सभी जो खो चुका है ..
देकर चिता को आग किसकी आये हों ..
बदहवासी से भरे क्यूँ इतना घबराए हों ..
है विडम्बना इस देश की ...सत्य ही मरता यहाँ सदा से ..
भ्रष्टाचार ,कालाबाजारी का बोल बाला है यहाँ ...
मर गयी वो शाख पर बैठी थी जो ..
क्या खबर अब तलक मिली नहीं ...छप जानी चाहिए थी अखबार में ,
गिर गया बिजली का तार समन्दर के बीचोबीच और मर गए वो जीव जिनका खुदा हुआ तू
क्या खबर झूठी नहीं थी ...सच ही थी वो ...
पागलपन का इलाज चल रहा है तरतीब से ...इंजेक्शन खत्म रेबीज के हों चुके
अस्पताल भी दिवालिया घोषित हों चुके हैं ..
क्या आज भाँग का असर कुछ हों गया है ....नाम लिखने की तमन्ना क्यूँकर जग पड़ी
सकते में पूरा विभाग आ जायेगा ...उस एक मुलाजिम की वजह से सब कुछ गंवाएगा
दफन हों जाने दे अब दो गज जमीं ही चाहिए ..
डरता है समन्दर किनारे की आग से ....झुग्गिया जो जल उस आग में...
हश्र उनका कभी सोचा है क्या ...ये जमाने का पुराना दस्तूर है ...
रोता नमकहलाल और नमक हराम है जो... वही चढ़ता परवान है .--विजयलक्ष्मी

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