Wednesday 25 July 2012

नई पौध को रोपने का वक्त आ पहुंचा ...

इन्तजार साँझ का क्यूँ हों बिक चुकी ये शाम ,
नासाज सा वक्त मिलेगा तन्हाई से ..
खो रहे होंगें नजारे सन्नाटे में फिर से ,
गंगा सी जिंदगी बह रही होगी कहीं दूर 
बादल भी घने होते है तिरते है साथ वक्त के 
समन्दर उठता है गहराकर साँझ की बेला का 
वक्त पकडूं क्यूँकर फिसलता चला जाता है
माली को भी चिंता है गुल की, उपवन सहेजना है ..
बगीचे को एक माली की तलाश बाकी है अभी ..
सफर तो यूँ ही चलेगा घोसलें की तलाश है नए
घर के कोने में करीने सजे दो गमले ..
आकार लिया चाहते है अपना अपना ..
नई पौध को रोपने का वक्त आ पंहुचा है ..
सफरनामा तो जरूरी हैं ,
जमीन तलाशनी है ,तलाश जारी है .
खाद पानी का इंतेजामात भी करने होंगे ..
पौध सम्भलकर रोपी जाती है ..
न हों की सूख जाये रोपने से पहले खौफ लगा रहता है ...
कहीं बंजर जमीं में न रोप बैठें गलती से . -- विजयलक्ष्मी

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