Tuesday, 10 July 2012


















वक्त क्यूँ बदल रहा है ..
ख़ामोशी बढती जा रही है मुझमें ..
अपनी ही हंसी भी शोर करती सी लगने लगी है क्यूँ ,
बे वजह सोचते है ,खो गए है खुद से भी .
ये कौन सा सिला है ,कैसा फलसफा है ,
दर्द अब कुछ भला सा लगने लगा है ज्यादा
सखियाँ भी अब हमे अपनी सी नहीं लगती ,
लगता है मेरे ही दुश्मनों से मिल गई है 


   
कुछ अलग सा हुआ अब जीने का अंदाज भी
झंकृत से हों भीतर ही ठहरे है साज भी ,
ज्ञान सारा जैसे छूमंतर सा हों रहा है ,
बीतरागी सा मन चल पड़ा है किधर ..
अब ये कौन सा सफर है ......सीमाहीनता की सीमा बांधे मेरे दर पे खड़ा है
कदम जैसे अनायास ही बढते जा रहे है अब .
चलूँ ...अब ...तुमसे भी ,दूर ही चलूँ ...
अब हम डूबने लगे हैं ....हमे तैरना भी नहीं आता .--विजयलक्ष्मी

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