.मैं कैक्टस हूँ .....
काँटों के सिवा यहाँ कुछ भी नहीं
सहरा के समन्दर में गुलों की चाहत
क्या अजीब ख्वाब औ मंज़र है
रंग सिर्फ एक ही है दर्द का
बाकी तो मुखोटे है यहाँ
ये मुस्कुराहट उधार की लगती है,.. क्यूँ ??
या ये रंग,.... दान है किसी का
ये जो मैं हूँ ..बस मैं ही हूँ .....
रंगों का असर भला अब क्यूँ कर हो भला
एक चीख दिल को चीर कर
आकाश से गुजरती जमींदोज न हों जाये
तो क्या मज़ा ....???
बोल मत चुप कर ...मैं चुभूंगा ही
रुकना क्यूँ अब ..
जो तेरी समझ कहे समझ ...
मुझसे उम्मीद न कर बदलने की
अमीत मैं ही कैक्टस हूँ ...
वो भी सहरा का ...
No comments:
Post a Comment