Tuesday, 13 August 2013

वो पनघट मेरे गांव का


वो पनघट मेरे गांव का ...जिन्दा है यादों में आज भी ,
जिन्दा थी इंसानियत दिलों में जहाँ ..
न शातिरी, न बेइमानी थी ,पाक साफ दिल थे सब के हमारी तरह 
न झगड़े थे पानी के ...न लड़ाई थी छाँव की खातिर ..
मिल के गले गुजार लेते थे हम गम कि हर रात ..
न चाँद दगा देता था ...पत्थर के जंगलों सा ..
खुला सा था आसमां ...और भाईचारे के थे निशाँ ...
वो पनघट मेरे गाँव का ..याद आता है बहुत आज भी मुझे ...
ये कौन सा मोड है जिंदगी का जहाँ हर कोई लुटा सा है
शहर की इन गलियों में खोकर हुआ झूठा सा है ...
क्यूँ मैल नजर आते है यहाँ ...कुछ बेदिली सी है ...
मेरे गांव का पनघट बसा आज भी सांसों सा है मुझमे ..
मेरे गांव का पनघट ...जिन्दा है आज भी मुझमे .
-- विजयलक्ष्मी

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