Wednesday, 21 August 2013

चले जाओ ...उस वतन ...जहाँ चैन की सांस आये त्तुम्हे

सत्य तो सत्य है बदलता कब है 
जिन्दगी जिन्दगी और मौत सिर्फ मौत ..
मध्यमार्ग चलो बताओ तुम कौन सा ..
सिर्फ एक मर मर के जीना ..
जिन्दा दिख हुए मरा होना 
कौन सा ठीक है ...
जितन असत्य है सूरज का निकलना उतना ही सत्य है अँधेरा ..
मतलब सीधा है अगर कोई बीच का मार्ग तुम्हे भाता है तो मत रुको ...तुम 
चलते चले जाओ ..हम ये बन्दरबांट हम नहीं कर सकते 
मुबारकबाद दो हमे ....
चलो ये भी करते हैं ..
और देखते है कितना नीचे जा सकता है हम क्या रसातल तक ..
जब तुम्हे अहसास हो जाये ..
या तुम देखकर भी अनदेखा करना चाहते हो ..जैसा चाहो
हम सत्य की अर्थी को अपने कंधे पर उठा लेते हैं और ...
मत आना तुम उस अर्थी के पीछे ..
एक दिन जला भी देंगे हम उसे अकेले ही
दिखता रहेगा तुम्हे खिलता हुआ आंगन तुम्हारा
मत देखना उन गुलों पर कितने लिहरे किये है काँटों ने चुपचाप
काश ....सत्य से मुलाकात न हुयी होती ..
हम भी जिन्दा रहते अलमस्त ..
जमाना मुखौटों का आ गया है
लगा लो तुम भी वही मुखौटा जो सबने लगाया है
तुम्हारे पास है ...जाओ पहनों ..और खुश रहो
हम डूब जाते हैं सच का पत्थर बांधकर..
पैकिंग का जमाना है ..
एक के साथ एक फ्री ..का वक्त सर चढकर बोल रहा है
आंसू ..लगता है तय है .
कभी चमन में कभी सरहद पर
कभी आर्थिक नीतियों में
कभी बिकते जमीर को देखकर
राजनीती में उठते खमीर को देखकर
रुपया लुढकता जा रहा है
देश के हाथ में लकीरे ही कुछ ऐसी खिंची है शायद
और हरे वृक्ष दबकर कोयला हुए फिर बहर निकले
दलाली में हाथ काले किये कितनों के सच है
आंख बंद कर लो अब ..कहीं बाढ़ न आ जाये और बह जाये
सबकुछ ...वही एक तन्हा सत्य ..|
चले जाओ ...उस वतन ...जहाँ चैन की सांस आये त्तुम्हे
|- विजयलक्ष्मी

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