Monday 5 August 2013

जो वतन जला रहे है उन्हें जला डाले

कुछ सन्नाटे ऐसे भी हैं ,भीतर भीतर ही रिसते हैं ,
तपिश क्या जलाकर राख करके भी नहीं मिटते हैं .- विजयलक्ष्मी

शायद ,अब नहीं सताएगी तन्हाई न अहसास रुलायेंगे ,
सीख रहे हैं खुद को बहलाना किसी रोज सीख भी जायेंगे .- विजयलक्ष्मी 




पिंजरे के पंछी से पूछे गये हैं सवाल 
पंख कतरे अब बताओ गगन का हाल .- विजयलक्ष्मी 



वक्त की आंच इतनी न जला खुद को जला डाले ,
मजा तब है ,जो वतन जला रहे है उन्हें जला डाले .- विजयलक्ष्मी 

No comments:

Post a Comment