रिएक्टर स्केल जब हिलता है ,,
सिस्मोग्रफ हिलता नहीं हिला जाता है
असर देखा कभी उसका
दिन में रात और पूनम भी अमावस हो जाती है
संग्रह और विग्रह ..व्युत्क्रमानुपाती दीखते जरूर है ...होते नहीं
कलम जब लिखती अहसास व्यथा कथा प्रथा नहीं सच लिखती है
चीख उठती है बवंडर लेकर
चीरकर गुजरती है जब खुद को
हस्ताक्षरित जिन्दगी नाम लिख दी अब
आचरण, व्याकरण और सभ्यता ..दोगली क्यूँ हो जाती है
लो ढक दिया आवरण सा एक
तुम नहीं आओगे यूँही छिप जाते हो अक्सर बादलों की ओट
देखते हो रिसते हुए ...महसूस करना चाहते हो सच को
उनवान बस उनवान है
यूँ भी अक्सर पंख विहीना मैं ....
उडती हूँ हौसलों की उड़ान ..देह पिंजर से निकल
खुले आसमान से ..अपने सूरज तक
और समा जाती हूँ खारे समन्दर की लहरों में
बिन पतवार की कश्ती लेकर
जिसे मनोरंजन लगता है लगता रहे ..
मेरे अंतर्मन में बसा है शिलालेख वही
तुम नदी से बहे और उतर गयी थी एक कश्ती उसमे
वही कश्ती लहरों पर अनवरत ढूंढ रही
जीवन को थाम उम्मीद की किरण
जिसके सूरज तुम हो ...हाँ तुम ही हो .- विजयलक्ष्मी
No comments:
Post a Comment