Thursday, 22 August 2013

दीवानगी सबकी अपनी अपनी है

दीवानगी सबकी अपनी अपनी है
किसी को धन से किसी मन से है 
किसी को प्रेम है देह का निखालिस 
किसी की कुर्बानी अपने वतन पे है 
कोई उपवन सजाता है इन्द्रधनुषी 
किसी को नफरत ही मेरे चमन से है 
दुआ भी बद्दुआ सी नजर आने लगी 
लेकर कभी बंदूक डराता बम से है 
सरहद पर मौत का खौफ क्यूँ अब 
कफन बांधकर चलते है मतवाले मैदान ए जंग में 
वो नहाते कब है होली के कच्चे रंग में
केसरिया बाना और तिरंगा जिन्हें भाता है
उनके सांसों को ख्याल भी वही महकाता है
मुहब्बत के रंग कितने है कही लैला से किस्से
कही लक्ष्मीबाई की रंगीन जिन्दगी
प्रताप की तलवार ,कही शिवाजी को सिखाई जीजाबाई ने ईमान की बन्दगी
कहीं रक्त से व्याकुल अशोक तलवार को फेंक देता है
कही राजपाठ को त्याग गौतम बुद्ध बन बैठा
कभी जन्म लेते है सुभाष से वीर धरती पर
कही सुखदेव भगत बटुकेश्वर झूलते है जीवन के झूले पर
दीवानगी ये भी है चुपचाप विष पीकर भी मीरा मरती नहीं है
राधा रंग में रंगकर भी मुलाकात श्याम से करती नहीं है
उलटे रंग भी बहुत भ्रष्टाचार से प्यार है जिन्हें कतार कम होती कब है
खाद्य सुरक्षा हो रही किसी और की जिससे मौत मुकर्रर हुयी किसान की
किस्सा ए दीवानगी बिखरे पड़े हैं
हर शब्द हर गली कूचे में निखरे पड़े हैं
सूरज की दीवानगी जलता है गगन में
और चन्द्रमा घटता बढ़ता है जाने कौन से विरह मिलन में .
- विजयलक्ष्मी

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