बहुत है दवा की दुकाने तेरे शहर में
दुआए बसती हैं मेरे दिल में बहुत ही
मालूम है तुझको जरूरत पड़ेगी जरूर
दुआओं की भट्टी जलती बहुत है
जब तू मर रहा था ..
चीखा था मैंने भी जोर से बहुत ही
रूह की आवाज तुझ तक पहुंची नहीं शायद
मेरा विश्वास मुझसे भी ज्यादा है तुझपर
एक ये हकीकत तू जानकर भी बना अनजान है आजतक
तेरी रूह मुझसे मिलती रही हर हद तक
मगर तू खड़ा ही रहा वही उसी छोर ,बहुत दूर... मेरी रूह के दूसरे छोर पर
अपने अहम में भरा ..
और मैं निरीह ..देख रही थी ..
न पुकार सकती थी
न खामोश ही रह पा रही थी ..
एक मजबूर ,,विवश ...अह्सहाय सी ..
क्या तुम समझ पाए मुझे ..और मेरी जद्दोजहद !
मेरी पलको के पीछे रिसते आंसू ...
मेरी आत्मा की चीत्कार
न मरो में ..न मैं ...जिन्दों में
और तुम ने दर्द देखकर मुझसे नजर फेर ली
.,,, एक आखिरी कोशिश ..
लो मैंने पढ़ लिया अपना मर्सिया भी खुद ही ...
तुम कहाँ थे ?..खोये थे कहीं ..!
और मैं ...चल पड़ी ..
एक अंतहीन सफर पर
खोजते हुए... तेरे कदमों की तलाश में ..
और
......खुद को ..!! - विजयलक्ष्मी
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