खिल रहा है आंगन में मेरे आफताब बनकर
महकता है पल पल ,,चहकता है झरोखे पर
बहकता है हवा संग ,लहकता ख्वाब बनकर.
सुर्खरू है रंग देखकर मेरे महताब का यूँ भी
चटकता है कली सा बहकता है शबाब बनकर.
डराता है सायों के रंग से..कालिमा का खौफ दे
डरता है सरगम से रहता है खुद गजल बनकर.- विजयलक्ष्मी
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