Saturday, 29 June 2013

भूख उगी सत्ता के घर में


सुनता है बहुत कुछ ,
आसमान को चीरती वो आवाज 
जिन्दगी के हर फलसफे को पहचान देती है 
लोकतंत्र की हर सीढ़ी पीढ़ी दर पीढ़ी चढती है 
देख रही लगातार लिखा नाम सत्ता पर अपना 
बिकती दुनिदारी दुकानों पर 
यहाँ तो सच का परचम  लहराता है ..




खेतों में धन घोटालों का नहीं आता है 
राशन कार्ड भी चावल मिलते है खोटे..
गेहूं छोटे और तेल की मारामारी है 
भूख उगी सत्ता के घर में ....रोटी मिलती उनको सरकारी है 
चुप है जनता मत समझो व्यर्थ बस जरा सी लाचारी है 
ये खेत सूखते है बिन बिन बरखा के ,,,
ट्युवेळ लगवाते थोड़ी पैसों की लाचारी है .

- विजयलक्ष्मी

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