Thursday, 13 June 2013

पार हमे उतरना ही क्यूँ ,डूब मरेंगे मझधारा.

नदी के दो पाट मिलते नहीं कभी ,
बहता है दरिया स्नेहसिक्त सा यूँही .

बहुत बरसी हूँ रिमझिम यहाँ सावन सी ,
स्वाति बूंद नहीं हूँ जो मोती बनती सीप की .

चलो गुलों से कहे मुस्कुराने को ,भ्रमर से कहो गुनगुनाने को ,
बादलों को रोककर रखना ...अभी बाढ़ का खतरा टल गया है .

वो बेटी कभी ख्याल से जिन्दा है कभी हर अहसास में मरती है ,
आजादी दिखे पूरी ,,, जमाने की पहरेदारी हर साँस पे चलती है.


मेरी सीरत के सांवले रंग को हरित करने की तमन्ना क्यूँ ,
अपनी राह चलता चल ....यहाँ सूरज दीखता है कभी कभी .

काफिला भी तुम्हारा ,पतवार भी तुम्हारा ,,,
पार हमे उतरना ही क्यूँ ,डूब मरेंगे मझधारा.
- विजयलक्ष्मी 


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