Friday, 28 June 2013

एक अदना सा इन्सान ..

न आफताब हूँ न मैं महताब हूँ ,
काटों भरा हूँ गुबार हूँ ,नहीं गुलाब हूँ 
न बरगद हूँ कोई जो छाँव दे किसी को 
मैं कडवा भी हूँ मगर न नीम न करेला 
चाँद के साथ खिलता क्यूँ न ख्वाब हूँ
न तरन्नुम हूँ न तराना न अलाप हूँ 
स्वरलहरी बिखेरे जो न कोई ऐसा राग हूँ 
रौशनी न दे सका अँधेरी राहों का नहीं चराग हूँ 
बुत भी नहीं हथियार भी नहीं हूँ मैं 
न नेता न व्यापारी न कोई अधिकारी 

एक अदना सा इन्सान ..
जिसकी आकांक्षाये छूती है आसमान
जो रच देता है पत्थर में भी भगवान
एक हवस जिसकी रच देती मानवता का कफस
एक नफरत की चिंगारी भस्म कर देती दुनिया सारी
एक पावन सी मुस्कान खिला जाती कायनात
हिला जाती भगवान ...विनाश मिटाती धरा को भी
और ...सृजन रच देता है जिसका धरती पर भी स्वर्ग सा संसार
.- विजयलक्ष्मी

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