Monday, 24 June 2013

वो परी उतरे कहीं और दरमियाँ कोई न हों

मायने खो गए शब्दों के शब्दों में ढलकर 
रूह के रास्ते रूह की तरफ और गर्दिशी जमाने भर की ,
ताआर्रुफ़ वक्त के कनारे पर चिपका अहसास जलता हुआ सा 
शब्दकोषों के खुले मुहँ व्यर्थ जब लगने लगे ...
आत्मा का फिर कोई भेद बाकी न रहे ,न रहे बोझिल हुआ सा वक्त फिर 
न धुआँ न कोलाहल न और कोई भरम रहे ,
बस वही एक रास्ता जिस डगर कर्म चले ..
न झंझा न झंझट न झुन्झलाहट के कारवां ..
एक मंदिर गुंजायमान होती घंटियों के संगीत सी ,
वो परी उतरे कहीं और दरमियाँ कोई न हों ...
न अहसास न अनुभूतियाँ बाकी कोई धारता है वो ..
वही है अनंत उपासना सा , बस और कुछ बाकी नहीं है.
- विजयलक्ष्मी

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