Friday, 28 June 2013

सम्भाल अहसास का धागा

विजय, सम्भाल खुद को ...
यूँ न उजाड़ खुद को 
जिन्दगी पल दो पल की नही है 
थोडा रुक और सम्भाल खुद को 
ये तो मौके बेमौके तूफ़ान आते ही हैं वक्त के 
यूँ तोड़ ...बस अब जोड़ खुद को 
विजय ...अब बहुत हुआ ...
सम्भाल खुद को ...विजय
अपने भरोसे को यूँ नहीं तोड़ते 
सृजन को विनाश की तरफ नहीं मोड़ते
अपने ध्यान से इतर क्यूँ है ..
तेरा ध्यान जाता उधर क्यूँ है
साधना को साधन बना अपना
खोल मन के चक्षु ..
अक्ष पर बिम्बित कर नक्श को
और सफर पर चल
धारकर धीरज सा गहना
विश्वास भी नहीं छूटा ..
बंधन भी नहीं झूठा ..
फिर बता बदहवास क्यूँ है
विजय ...दिल की आवाज सुन
उसी से ख्वाब बुन..
सम्भाल अहसास का धागा
लगा पाक सा वहीँ गठबंध ..
होकर सद्यस्नात ..चल डूब जा समन्दर बीच
पार न उतर ..न रहना है इधर ..
क्षति ग्रस्त न कर न तोड़ विश्वास
सम्भाल अपनी आस ..
चल कदम बढ़ा ..
चल सम्भाल खुद को
मुस्कुरा फिर एक बार ..
जिसको करना है करने दे यार
तू खुद न बदल
अपनी डगर चल
उसी भरोसे से ...
तू वही है ...बदल मत इस तरह न कमजोर है
न होना है
बस अब नहीं रोना है
न खुद पर से न .....विश्वास खोना है
कदम दर कदम चल मिलाकर कदम से कदम .- विजयलक्ष्मी

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