सर्द भोर का सूरज
तपिश तो देता है
छोड़ जाता है एक ठंडापन
ठिठुरता अहसास
धूप की ख्वाहिश
पतझड़ का रंग
सिकुड़ती त्वचा
नाराज होती प्यास
जुल्म करती साँझ
ऐसे में खिला पुष्प
जैसे कह रहा है
मेरी तरह महक
तन्हाई का क्या है
रंग ढंग जय न
कुछ यादों के संग
मुस्कुरा सफर तय कर
नहाकर नदिया में
मेरे संग लहरों में उतर
भूख तुडफुडा रही थी
नयन नम हैं ..
और तेरा अहसास जिन्दा
गगन के उस छोर
एक सितारा तन्हा इंतजार
टूटता रहता है दूजा इधर
आंसू गिरने से डरते हैं
तस्वीर न धुंधला जाये कहीं
और एक मुस्कान होठो पर
नश्तर भी मीठा था तुम्हारा
जुदाई कसैली सी लगती है
और याद कॉफ़ी मेरी तलब
मुझे चस्का लग चुका
मन को स्वाद भा गया
और दिल को तुम ||
---------- विजयलक्ष्मी
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