उठा खंजर ,उतार दे पार.. रंज न कर ,
ए जिन्दगी तुझसे ,गिला भी क्या करे
खिलखिला मगर न मायूस हो इसतरह
बता तेरी ख़ुशी से हम गिला भी क्या करे
इज्जत बना दी गयी जैसे हो कपड़े शरीर के
इंसानियत की मौत का सिला भी क्या करे
बहते लहू का मंजर नदी बनके बह रहेगा
खिल उठेंगे सिंचित चमन सूखा भी क्या करे
खड़ा लू के थपेड़े में जवान ,परिवार कुशल होगा
बदतर होते हालत राज्य के सीमा पर क्या करे
नहीं नसीब सूखी रोटी, किसी को मक्खन लपेटकर
अंधे राज में खड़ताल जुदा जुदा भी क्या बजे -- विजयलक्ष्मी
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