Thursday 19 June 2014

" नहीं चाहती ....शुक्र के बिना गुजर जाऊं समय से पहले "

क्या लिखूं और क्यूँ लिखूं ..
और लिखूं भी तो किसके लिए 
दर्द की चादर उघाड़ना तुम्हे दर्द देता है
मेरे शब्द तुम्हे भाते नहीं है 
मेरे अहसास तुम्हारे लिए फालतू कूड़ा करकट है 
मेरी हंसी ...तुम्हे यन्त्रणा देती है 
मेरा बोलना शूल सा चुभता है 
मेरी बाते तुम्हे परेशान करती हैं 
मेरी उपस्थिति अनिवार्य है ..जानती हूँ ,
हाँ...एक सत्य स्वीकारती हूँ ...जो खूब भाता है तुम्हे ...
वो हैं हमारी चुप्पी |
फिर भी बोलती हूँ
दूर बैठकर देखती हूँ राह
करती हूँ इन्तजार ..
बहुत वाचाल हूँ शब्दों के साथ ...क्या करूं
क्या कह दूं मजबूर हूँ तुम्हारी तरह
दर्द को टोकती हूँ
गुस्साती हूँ खुद पर
शुक्रगुजार हूँ ...इस पायदान पर खड़ा रखने के लिए
मगर प्रयासरत हूँ ..
नहीं चाहती ....शुक्र के बिना गुजर जाऊं समय से पहले !--- विजयलक्ष्मी 

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