" दुश्मन के लहू से खंजर का श्रृंगार करले ,
चिंगारी को देकर हवा क्यूँ न अंगार करले ,
कश्ती पर सवार हो लहर लहर चल रहे है
कोशिशों को अपनी क्यूँ न पतवार करले
चलते चले है अब तो नदी से डगर डगर
लहर लहर खुद को क्यूँ न मझधार करले
लिए डूबने की चाहत समन्दर हो गये है
वक्त बदलने से पहले क्यूँ न ज्वार करले
तूफ़ान हमे डराए और दुश्मन तरेरे आंख
शब्द शब्द अपना क्यूँ न तलवार करले ". --- विजयलक्ष्मी
चिंगारी को देकर हवा क्यूँ न अंगार करले ,
कश्ती पर सवार हो लहर लहर चल रहे है
कोशिशों को अपनी क्यूँ न पतवार करले
चलते चले है अब तो नदी से डगर डगर
लहर लहर खुद को क्यूँ न मझधार करले
लिए डूबने की चाहत समन्दर हो गये है
वक्त बदलने से पहले क्यूँ न ज्वार करले
तूफ़ान हमे डराए और दुश्मन तरेरे आंख
शब्द शब्द अपना क्यूँ न तलवार करले ". --- विजयलक्ष्मी
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