Friday, 13 June 2014

" शब्द शब्द अपना क्यूँ न तलवार करले ".

" दुश्मन के लहू से खंजर का श्रृंगार करले ,
चिंगारी को देकर हवा क्यूँ न अंगार करले ,

कश्ती पर सवार हो लहर लहर चल रहे है
कोशिशों को अपनी क्यूँ न पतवार करले 

चलते चले है अब तो नदी से डगर डगर 
लहर लहर खुद को क्यूँ न मझधार करले 

लिए डूबने की चाहत समन्दर हो गये है 
वक्त बदलने से पहले क्यूँ न ज्वार करले 

तूफ़ान हमे डराए और दुश्मन तरेरे आंख 
शब्द शब्द अपना क्यूँ न तलवार करले ". --- विजयलक्ष्मी

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