पिंजरा तो पिंजरा ही है साहिब
क्या फर्क सोने का नफरत का
चलती साँस अगर थम जाये
लम्हा मिलन का रुखसत का
कोई यूँ ईमान लिए फिरता हो
खूब सजे बाजार फितरत का
खिलौना सा इंसान बहैसियत
झुठलाता वजूद कुदरत का
अह्म ब्रह्मास्मि अहम ब्रह्मास्मि
भिखारी हुआ क्यूँ किस्मत का
छिपाए है आस्तीन में खंजर
ढूंढता हैं मौका खिदमत का --- विजयलक्ष्मी
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