" कितना पागल है ये चाँद तन्हा निकल पड़ता है ,
चांदनी संग लेके तारो की सौगात चल पड़ता है
अँधेरी सूनी डगर से बेखबर निकल पड़ता है ,
अमावस हो या पूनम समन्दर उछल पड़ता है
समझो किससे मिलने दरिया निकल पड़ता है
छोटा सा फव्वारा गगन को छूने उबल पड़ता है
न त-आर्रुफ़ न मुलाकात जज्बात निकल पड़ता है
सुनकर क्यूँ नाम, चुप दिल भी उछल पड़ता है .
बहुत टोका यूंतो जाने क्यूँ हरबार मचल पड़ता है
लाख समझाया रिश्ता दिल ए नादाँ मचल पड़ता है "
---- विजयलक्ष्मी
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