" खुद से भरोसा उठ गया क्या जो रूठ गयी दुनिया ,
हम तो सफर पर है आज तक ,तुम्हारी तुम जानो
गंगा पहुंचती है गंगासागर ,ये सच बदला कब
सब दीप जल रहे हैं आरती के, तुम्हारी तुम जानो .
समन्दर खरा है खारा होकर भी ,मोती खुद में समेटे
सीप बनने की ख्वाहिश का तुम्हारी तुम जानो
तुम भूल सकते हो बजती हुई मन्दिर की घंटी
हमे मझधार में रहने दो, तुम्हारी तुम जानो "
-- विजयलक्ष्मी
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