Friday, 6 June 2014

" जिन्दा कोना हूँ तुझमे चुभता हुआ,दर्द क्यूँ .. वजूद न हो अगर "

जानती हूँ ये सच ,तुम नहीं आओगे ...देखते रहोगे यूँही ,,
क्यूंकि खुदा खुद कहाँ उतरता है जमीं पर ..मजबूर न हो अगर 

मैं ,मेरा क्या है ...देना है इम्तेहान यूँही उम्रभर 
जिन्दा कोना हूँ तुझमे चुभता हुआ,दर्द क्यूँ .. वजूद न हो अगर

तीर बनकर मझधार में डूब रहा रेत का मंजर जैसे 
फिसल रहा है वक्त खली हाथ कौन वजूद .. मौजूद न हो अगर 

वो पेड़ वो गली कडवे नीम सी दवा कानूनी शिकंजे
नदारत इंसानियत जेहन से रावण कितने ..कबूल न हो अगर

अंधे पिता को सहारा क्या दे रहा वंश बेल का फूल
मारी पेट में ,लुटती अस्मिता, बोया बीज .... भूल न हो अगर

क्यूँ कलपता है,मरना ही था .मरेगी भी लडकी ही
रेवड़ी तो अपनों में बंटती आई,लडकी वो...महफूज क्यूँ हो मगर
||------- विजयलक्ष्मी 

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