Thursday 19 June 2014

" मैं असभ्य ही ठीक हूँ "

आजाद हो गयी रूह ,,
क्या सच में हो पायी आजाद ..
आत्मा सुना है मरती नहीं है ..
जो आजाद नहीं होती वो ही बनती हैं प्रेतात्मा ..
वो तो बन रही है ...या बन चुकी ,,
वोट और चोट के खेल में ...
मासूम उम्र प्रेतात्मा बन भटकती रहेगी 
क्या न्याय मिलेगा ..दरख्त से लटकती हुयी देह को
माँ की कोख को ///पिता की चोट को ..
समाज की अंतिम इकाई को 
गाँव की तरुनाई को ..
उस वृक्ष को ...खेत को ..रस्सी को
उस रस्ते को ..
उनकी तडपती घुटती लुटती इज्जत को
उसी रस्ते से गुजर कर ..
मर्द की मर्दानगी पर प्रश्न चिन्ह लग चुका है
कौन है आखिर ..मरद ..वो जो राक्षस से भी एक पायदान नीचे हैं
या ..वो जो ..देख सुनकर जानते बूझते ..
तमाशा बना रहे हैं
या सत्ता की हनक दिखाना चाहते हैं ..
या वो ..जिनके हाथो ने चूड़िया पड़ी हैं ..लेकिन दिखती नहीं है
बस बजती हैं ...
एक और हवस-कांड होने पर ..
स्कूल ,खेत ,राह छोडिये ..उसी सुरक्षित घर में घुसकर
जहाँ ...माँ भी है बाप भी रिश्ते गाँव सब हैं
लेकिन कोई जिन्दा नहीं लाशे हैं बस
मादा देह ...हवस की शिकार ..
लटकती है उसी वृक्ष की डाली पर ..
जहाँ से उतरी थी ...
जीवन से अतृप्त ,सतायी हुयी
अनगढ़ कच्ची कमसिन देह ..
खेलती थी ,घडती थी किस्से गुड्डे गुडिया के
ख्वाब का मतलब नहीं जानती थी जो
नहीं सुनी ...चीख चीरती हुयी आत्मा को तकुआ से ..दुसरे छोर तक
पसरा है मौन ...
न्याय ..इज्जत.. ईमान ..सब मोहताज हैं
अन्याय ,सभ्यता ...
मुझे सभ्य नहीं बनना ..
एसी सभ्यता से मैं असभ्य ही ठीक हूँ
.---विजयलक्ष्मी 

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