कतरा कतरा लहू सडक पर बिखरा पड़ा है
सभ्यता सिसक रही है ...बम भडक उठे ,संगीने तनी हैं
और हम तमाशाई बने हैं ..ईमान की दूकान पर खड़े
खरीद-फरोख्त जारी है...जज्बात खरीदे जा रहे हैं
काले पेंट पुते काले धन की खबर चाहिए
देखना हैं ऊंट किस करवट बैठता है ..या ..
अभी पहाड़ के नीचे ही नहीं आया ..
कल का फकीर पुतले फुंकवा रहा है ...रोकने नहीं आता कभी
क्यूँ चुप हो ...कुछ तो बोलो ..बिखरे लहू और सड़ते लौथड़े इंसान के
चील कौवे भी नहीं आना चाहते संगीन तले
इन्सान या हैवान ...उसपर आसमान छूती बुलंद आवाज
जैसे महानता सर पर चढ़ी हो ..
मौत के सौदागर ...हज करते है और कर्बला बनाते हैं ...ईमान पर
वही ईमान जो काफिरों को मार दो कहता फिरता है
क्या कोई फतवा नहीं आएगा आज ..
कुछ तो है जो गिर गया है ...और ...
और ..इन्सान हैवान बन गये .--- विजयलक्ष्मी
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