Friday 28 February 2014

"नदी बन अथक अनघड से ही चलते रहे हैं खुद में"

दीपक तले अँधेरा ही होता है मालूम है न ,

रोशन चरागात है वही जो जलते रहे हैं खुद में .



तूफानों का क्या है जो उनका काम है करेंगे 


मिटकर बनना है हौसले से चलते रहे हैं खुद में 



टूटकर गिरे वृक्ष तो कोयले से हीरा ही बनेगे 


लिए इक जिन्दगी बीज बन पलते रहे हैं खुद में 



दह्ककर महकना मुहर सीख रहे हैं आज भी 


सूरज न सही जुगनू से बन जलते रहे हैं खुद में



समन्दर तो अथाह है अथक है विश्रामगाह भी 


नदी बन अथक अनघड से ही चलते रहे हैं खुद में .-- विजयलक्ष्मी

No comments:

Post a Comment