Friday, 28 February 2014

" खो गया भस्मीभूत होकर राख में "

प्रेम गीत ,..
श्मशान में भला कौन गाता है ,
क्या करे हम मरघट भी भाता है 
सो जाते है कुछ लोग चीख चीख कर ..
चिर निंद्रा में विलीन होने की चाह जाग रही है 
नयन गीले भी मत करना ..
जिनका फातिहा पढ़ा जा चुका हो ..उनपर रोया नहीं जाता 
वक्त मरहम रख देगा ..
उन जख्मों पर जो वक्त के माथे पर खुरचे थे नाखूनों ने 
ओस मर ही जाती है सूरज की तपिश में 
दावानल कुछ नहीं छोडती अपने पीछे ...अधजले ठूंठो के आलावा 
और सुनामी तो किनारों को भी बहा ले जाती है अपने साथ 
उसके बाद का वीराना ठहर गया हैं मुझमे 
जलने पर पुन: अंकुरण नहीं फूटता ,
नई पौध ही रोपी जाती है जरूरत के अनुसार ..
जंगल जो बेतरतीब सा था ..अलमस्त सा ..
खो गया भस्मीभूत होकर राख में 
उपर से बरसात ...चिंगारी की आस भी खत्म .-- विजयलक्ष्मी 

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