Monday 15 July 2013

काव्यांजली ...है श्रद्धांजली नहीं थी वो .

सब आजाद हैं यहां ,
सबकी आजादी का अपना अलग सा रंग है 
याद किसी की अहसास किसी का 
शब्दों की माला खो रही है ....क्या सचमुच ही ..
शब्दों का सिंदूरी हुआ रंग बदलता हुआ तो नहीं देखा था ...
बदल जाये इन्तजार का रंग मालुम नहीं था ...
देहलीज का दीप ....मेरे आंगन में नहीं जलता यूँ भी 
हर आंगन का सूनापन दीखता है ...
मेरे भीतर एक दीप सा जिसमे बाती सा मन जलता है ...शब्दों को आग में जलाकर 
भ्रम नहीं हो सकता ...संसार है मेरा सा ...
कफन की तलाश थी नहीं मिला ..और जनाजा भी नहीं उठने दिया तुमने
शब्दों की चिता ही जला देते मेरे चहू और ...
.....तुम ..हाँ ! तुम ...नहीं कर सके ये भी
अब जलना भी मुझे ही है ...खुद को बनानी थी खुद की चिता ....
नदी सा बहकर भी लहरों में डूबा मौत नहीं आई ..
आंसू लौटते कब है ठहरते है बस ..पसरते हैं सरहद पर
तुम्हे न पाना था न पाया ..
भला हुआ अधुरे से टूटकर ....बिखर रहे हैं ..
टुकड़े जोडकर पूरा होने का अटूट क्रम...
हमेशा सा ...वही एक शब्द ...क्रमशः...
और आगे बढ़ जाना तुम्हारा ..
बहुत खुश होगे तुम ..मुस्कुराओ ..मद्धम मद्धम ..अब ..
हर बार सिमटने की कोशिश में बिखरते हुए देख ..
मुकम्मल होने की चाह ......?
एक आवाज ...तुम्हारी सी सुनती है
बाकी ...सन्नाटा है मुझमे ...मैं कहाँ हूँ खुद ..
उड़ना चाहकर भी ...नहीं उडाता,
पंख लगा देता है किसी को भी ..
एक अँधेरे से रास्ते पर ...कदम बढ़ते से है ..मेरे
मालूम है ...यूँ तो ..तुम नहीं हो
बस रिसता है जो मुझमे एक रिश्ता ..
काव्यांजली ...है श्रद्धांजली नहीं थी वो .
तुमने ही नहीं चाह मुझतक आना ..या मुझे बुलाना
खुदा बनाना ..मानना..और खुदा होना
बहुत बार देखे है लोकलुभावन से इश्तेहार
नमी देखी होती ...चस्पा हुयी
बहती है मुझमे जो ...कदम उठते ही नहीं
सादगी तुम्हे भाति कब है हमारी ..
बाकी भाता है हर मंजर ..हम दिखाई नहीं देते
यथा ...गायब हो ..अंतर्ध्यान हुए से हम ..
कभी आवाज तो देते हमे ...
मन के थाल में रखे दीप की रौशनी में केसर रोली से तिलक कर देते हम
.- विजयलक्ष्मी 

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